सलीम लंगड़े की मां - इसरार वारसी

सलीम लंगड़े की मां – इसरार वारसी

“सलीम लंगड़े की मां” आसमान अभी भी धुवें और गर्द से भरा है। आग जल कर कहीं कहीं ठंडी हो चुकी है कहीं उस में चिंगारी निकल रही है। गलियों में इक्का दुक्का दुकानें खुलने लगी हैं और लोग एक दूसरे से नज़र बचा कर घर के लिए राशन खरीदने निकल रहे हैं। चाचा भी निकलें हैं सामान लेने लेकिन मुंह पर रुमाल रखे हुए हैं। रुमाल रखने की वजह शायद आग़ज़नी के बाद उठने वाली बद बू हो या हो सकता है कुछ और हो। बच्चे डर के मारे बाहर खेलने नहीं निकल रहे हैं।

कई दिनों के बाद अनमोल चाचा बुढ़िया के बाल बेचने आए हैं क्यों कि उन को अपने बच्चों का पेट भरना है। लेकिन चूं के कोई बच्चा बाहर नहीं निकल रहा है इसलिए सुबह से दोपहर हो गई मगर कुछ बिका नहीं। सोहन जो पान सिगरेट की दुकान पर सामान सप्लाई करता है वो भी इस उम्मीद पर निकला है के शायद किसी ने दुकान खोली हो तो कुछ सामान बिक जाए।

बंद दुकानें

असलम फल वाले की रेहड़ी जला दी गई और उस के पास दूसरी रेहड़ी लेने के पैसे नहीं है इसलिए वो भी अपने घर के दरवाज़े पर बैठा बीड़ी पिता हुआ सोच रहा है के क्या किया जाए। दिक्कत तो ये भी है के बीड़ी खरीदने के भी पैसे नहीं हैं और जिस दुकान से उधार ले लेता था वो भी नहीं खुली है। नजमा सिर्फ चावल उबाल कर बच्चों को खिला रही है और असलम से फिकरियह लहज़े में कह रही है के घर कैसे चलेगा। असलम खिसियाना सा जवाब देता है मुझे क्या पता अपने अल्लाह से पूछ। वो मुंह बना कर बच्चे को खिलाने में लग जाती है।

रमेश की बीवी का उस से झगड़ा हो रहा है के पहले से कुछ पैसे बचाए होते तो आज काम आते जिस पर रमेश बेतुका जवाब देता है चल हट दिमाग ना खराब कर पैसे होते तो भी क्या होता पैसे खाती क्या। यहां कौन सी दुकानें खुल रही हैं जो सौदा मिल जाता।

यमुना का किनारा

ये यमुना किनारे बसी एक छोटी सी बस्ती है। यहां के लोग सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हैं। यहां कोई दफ़्तर में काम करने वाला, किसी कॉलेज यूनिवर्सिटी का कोई प्रोफ़ेसर, किसी न्यूज़ चैनल का कोई योद्धा हीरो एंकर, किसी अख़बार का संपादक या कोई सरकारी अफ़सर नहीं रहता है। यहां फल बेचने वाले, मजदूरी करने वाले, मुनिसिपलिटी में सफाई का काम करने वाले, दर्जी, पंक्चर बनाने वाले इस तरह के लोग रहते हैं। इस कॉलोनी के बराबर से सरकार ने एक दीवार खड़ी करवा दी है जिस के पार रेलवे ट्रैक है और उस के बाद खूबसूरत हाईवे और उस हाईवे के पार खूबसूरत हाउसिंग सोसायटियां हैं जहां समाज के सभ्य लोग रहते हैं। उन का जीवन सामान्य है। बस्ती के पीछे से एक नाला बहता है जो आगे जा के यमुना में गिरता है।

जले हुए घर

इसी बस्ती में सलीम लंगड़े का भी घर है। घर तो अभी है कुछ जला कुछ बचा हुआ सा लेकिन वो नहीं है। उस की मां अख्तरी पचास के आस पास की होगी लेकिन ज़्यादा बूढ़ी लगती है। एक छोटी बहन थी जिस की शादी दो साल पहले कर दी थी। अब इस घर में सलीम लंगड़ा और उस की मां रहते थे। बाप हाशिम तो बचपन में ही गुज़र गए थे। उस को टीबी हो गया था। डॉक्टर का कहना था धागों के रोएं इस के फेफड़ों में जम गई हैं। वो कपड़ा मील में मजदूर था। जब बीमार हुआ तो नौकरी भी चली गई और धीरे धीरे खांसते खांसते रूह भी निकल गई। कर्ज ले के कफन का इंतज़ाम हुआ।

खैर सलीम अब बड़ा हो गया है और उस की साईकिल की दुकान है जहां वो साईकिलें सही किया करता था और बाकी टाईम में कोई छोटा मोटा काम कर लेता था। बचपन में एक पैर में हल्की सी पोलियो का असर हो गया और धीरे धीरे वो सलीम अहमद से सलीम लंगड़ा हो गया। बुढ़िया दरवाज़े पर बैठी उस का इंतज़ार करती रहती और आने जाने वालों से पूछती के क्या उन्होंने सलीम को कहीं देखा है और जवाब ना में मिलता। लोगों को तो पता ही था और अंदर खाने बुढ़िया को भी पता था लेकिन इस उम्मीद में थी के एक दिन वो आएगा। उम्मीद में भी एक अजीब सा नशा होता है हकीकत देखने ही नहीं देता है।

दिनों का गुज़रना

पंद्रह दिन गुज़र गए शहर में दंगा भड़का था। उस दंगे की आग की लपटें इस बस्ती में भी आई थी हां ये अलग बात है के इस बस्ती को ना किसी पाकिस्तान का खतरा था और ना इस बस्ती से किसी हिंदुस्तान को खतरा था। ये बस्ती थी तो हिंदुस्तान में लेकिन आधुनिक हिंदुस्तान से बहुत दूर। लेकिन आग तो युगों की दूरियों को भी मिटा देती हैं। अभी कल की ही बात तो लगती है जब हमारे पूर्वजों ने आग की खोज की थी और आज उसी आग ने शहर के साथ इस बस्ती को भी जला दिया।

सरकार ने दुनिया के सामने बता दिया था के सब चंगा सी। असल आंकड़े छुपा लिए गए जैसा के अक्सर होता है। राहत कोष बन गया और कागज़ पर सारे पीड़ितों को पैसे मिल गए। लेकिन अख्तरी बुढ़िया को कुछ नहीं मिला क्यों के अभी तक ये तय नहीं हो पाया था के सलीम लंगड़ा ज़िंदा है या मर चुका है। अगर ज़िंदा है तो कहा है और उस सूरत में पैसे मिलने का कोई औचित नहीं बनता है और अगर मर गया है तो लाश कहां है और फिर वो पैसों का क्या करेगी।

ख़बर

शायद अख्तरी बुढ़िया को पैसे चाहिए भी नहीं इसलिए भी वो अपने बेटे के मरने की खबर को मानने से इंकार करती है। वो तो अभी भी इस उम्मीद में है के उस का बेटा कहीं से आ जाएगा। और सब सही हो जाएगा। उस का बेटा बड़ा होनहार है उस ने अपनी मां और बहन को बहुत कम उम्र से ही पालना शुरू कर दिया था बहन की शादी की और कुछ पैसे भी जोड़ लिए थे अपनी शादी के लिए। अख्तरी बुढ़िया बहू लाने के ख़्वाब देख रही थी पोते पोतियों को खिलाने के ख़्वाब देख रही थी बहू से सेवा करवाने का ख़्वाब पाल रही थी और बहू से झगड़े करने के मंसूबे भी थे के अगर मेरी बात नहीं सुनी तो यूं लडूंगी यूं कहूंगी यूं करूंगी।

जब से सलीम घर नहीं लौटा तब से उस ने पान भी नहीं खाया क्यों के सलीम शाम को आता तो अम्मा के लिए पान ले कर आता लेकिन शायद अब वो कभी पान भी नहीं खा पाएगी। सलीम से सुबह सुबह वो इसी बात पर झगड़ती के अब मैं तुम्हारा काम नहीं कर सकती शादी कर और मुझे आराम करने दे। सलीम ये कह के टाल देता के अभी थोड़े पैसे और जोड़ लूं क्यों के शादी ब्याह में खर्च होता है रिश्ते नातेदारों को दावत देनी होती है दुल्हन के कपड़े ज़ेवर बनवाने होते हैं वगैरह वगैरह।

सूखी आंखों

एक सुबह वो हस्ब ए मामुल दरवाज़े पर बैठी अपने बेटे की राह देख रही थी। पहले के राह देखने में और अब में ये फ़र्क आया था के अब वो रोती नहीं थी। शायद आंसुं सूख गए थे या दिल में सब्र आ गया था। सूखी आंखें ज़्यादा दर्दनाक नज़र आती हैं। ऐसा लगता है कोई मुर्दा आंखें खोले बैठा है। उस की नज़र रस्ते पर ही होती और वो बिना पलक झपकाए एक टक देखती रहती। उस दिन भी वो रस्ते को ही ताक रही थी के एक हवलदार उस के पास आया और उस से कहा अम्मा साहब ने तुम्हे थाने बुलाया है। वो तुम से कुछ बात करना चाहते हैं। उस का दिल बैठ गया। शायद मां के दिल को आभास हो गया था किसी अनहोनी का।

ग़रीबी

पुलिस वालों को एक लाश मिली थी जो सलीम लंगड़े से मेल खाती थी। लाश तो सड़ चुकी थी लेकिन पोस्टमॉर्टम में पता चला था के लाश के एक पैर में पोलियो था। अख्तरी बुढ़िया को थाने लाया गया और थानेदार ने झिझकते हुए उस को ये सब बात बताई। शायद आज पहली बार उन साहब को शर्म अाई थी और डर महसूस हुआ था। साहब अख्तरी बुढ़िया की सूखी आंखों को देख कर डर गए थे। बड़ी हिम्मत कर के हवलदार से कहा अम्मा को मुर्दाघर ले जा कर शिनाख्त करवाओ ताकि आगे की करवाई मुकम्मल हो सके।

अख्तरी बेगम सब कुछ समझ चुकी थी उस ने साहब से कहा के मेरे बेटे के कफन का बस इंतज़ाम कर देना। जब इस का बाप मरा था उस वक़्त भी मेरे पास कफन के पैसे नहीं थे और आज उस का बेटा मरा है तब भी मेरे पास पैसे नहीं हैं। बुढ़िया उठी और अपने बेटे की लाश के पास गई और हाथ से उस के दाएं पैर को टटोला जिस में पोलियो था और हां में सर हिला कर वहां से चल दी।

इसरार वारसी

Writer : Israr Warsi

@israrWarsi85

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